मंगलवार, 6 सितंबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 34

 

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की चौंतीसवीं किश्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 34

 

81. लोग जाते रहे पर आया कोई नहीं

 

प्रबंधन ने जनसत्ता को जो मीठा जहर दिया उसके असर से जनसत्ता से एक-एक करके लोग नौकरी छोड़कर जाते गए। पर उनकी जगह कोई नया स्टाफ नहीं लाया गया। योग्य और जानकार लोगों की जगह अयोग्य लोगों को तरजीह दी गई। कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि प्रभातरंजन दीन बहुत ही मेहनती और उम्दा रिपोर्टर थे पर उनकी जगह गंगा प्रसाद को तरजीह दी गई। पर गंगा प्रसाद का कहना था कि उन्हें सजा के तौर पर रांची भेज दिया गया था। पर उन्होंने एक नए शहर में बिना किसी परिचय के एक ठौर कायम किया और अपने बूते रांची में भी किसी तरह खुद को एडजस्ट किया और खबरें लिखी। यह भी कहा गया कि दिनेश ठक्कर वाणिज्य के अच्छे जानकार थे मगर उनकी जगह दूसरे को तरजीह देने की वजह से उन्हें जाना पड़ा। उस समय कहते हैं उनको बवासीर का आपरेशन कराना पड़ा था। उनको लंबी छुट्टी चाहिए थी पर छुट्टी न देकर उनको नौकरी छोड़कर जाने को कह दिया गया।

‌अखबार निकलने लगा तो सबसे मुश्किल एडीशन इंचार्ज की आई। जिन वरिष्ठ लोगों को इस काम के लिए नियुक्त किया गया था वे सफलतापूर्वक यह काम नहीं कर सके। पलाश विश्वास को संस्करण निकालने का अच्छा अनुभव था पर उनको तटस्थ रखा गया। संस्करण निकालने की जिम्मेदारी मांधाता सिंह को भी सौंपी गई। फिर भी अखबार को वहां एक वरिष्ठ और अधिक उपयुक्त व्यक्ति की जरूरत कायम ही रही।

अखिरकार मांधाता सिंह से पूछा गया कि इस काम के लिए किसे लाया जा सकता है तो मांधाता ने अनिल त्रिवेदी का नाम सुझाया। अनिलजी को बुलाने की जिम्मेदारी मांधाता को ही सौंप दी गई। मांधाता सिंह नेस्वतंत्र भारत कानपुर में संस्करण निकालने में अनिल त्रिवेदी के सहायक के तौर पर काम किया था इसलिए मांधाता को भरोसा था कि अनिल त्रिवेदी यह काम कर लेंगे। अब समाचार संपादक अमित प्रकाश सिंह पर यह भी जिम्मेदारी थी कि संस्करण निकालने के लिए ऐसे किसी उपयुक्त सहयोगी भी तैयार किए जाएं जो किसी आकस्मिक परिस्थिति में संस्करण संभाल सकें। नतीजा यह हुआ कि अमितजी के साथ एक समूह का शीतयुद्ध शुरू हो गया। इस शीतयुद्ध ने आने वाले सालों में टीम भावना को ही खत्म कर दिया।

गंगा प्रसाद को प्रमुख रिपोर्टर की जिम्मेदारी सौंपे जाने से प्रभात रंजन दीन नाराज हो गए। अनिल त्रिवेदी और मांधाता सिंह को तरजीह दिए जाने से कई और लोग जब-तब उपद्रव करने लगे। पलाश विश्वास को लगा कि उनको डंप किया जा रहा है तो वे भी नाराज रहने लगे। ऐसा अमूमन सभी अखबारों में होता है पर यहां नाराज और कुंठित लोगों का जो गुट बना उसे कहते हैं उस समय के स्थानीय संपादक का वरदहस्त हासिल था। इस वजह से अमित प्रकाश सिंह उस झगड़े के सीधे टारगेट बन गए। पांच साल बाद अखबार एक अजीब दौर से गुजरने लगा। जिन नाराज लोगों को लगा कि अब यहां भविष्य नहीं है वे जनसत्ता छोड़कर चले गए। ऐसा तो सभी अखबारों में होता रहा है पर अखबार को व्यवस्थित रखने की कोशिश जारी रहती है। पर इसके ठीक उलट तब तक वह दौर भी आ चुका था जिसमें जनसत्तादिल्ली स्थित कंपनी के हुक्मरानों और अखबार के मालिक के स्तर पर रची गई एक रणनीति के तहतजनसत्ता को हासिए पर डाल दिया गया। जनसत्ता के चंडीगढ़ और मुंबई संस्करण बंद कर दिए गए। इसकी आंच जनसत्ता कोलकाता पर भी आने लगी थी पर अखबार की मालकिन अनन्या गोयनका कोलकाता संस्करण को बंद किए जाने के एकदम खिलाफ थीं क्योंकि कोलकाता उनका मायके है।

जब संस्करण सीधे बंद नहीं हो सका तो अखबार को मीठा जहर देने का दौर शुरू हो गया। कंपनी की नीतियों की वजह से जितने काबिल संवाददाता और संपादक थे वे सभी अखबार छोड़कर चले गए। उनकी जगह उपयुक्त नियुक्तियां जानबूझकर नहीं की गईं। जनसत्ताको मारने की इस रणनीति के तहत जिलों के काबिल संवाददाताओं की भी छुट्टी कर दी गई। और इस तरहजनसत्ता जो शहर का सबसे विश्वसनीय अखबार था वह पूरी तरह लड़खड़ाने लगा।

 

82. प्रभात खबर आने से पहले जनसत्ता का दाम बढ़ा दिया

इसबीच, एक और बड़ी घटना घटी जो व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के लिहाज से ठीक नहीं थी। झारखंड के रांची शहर का प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक प्रभात खबर कोलकाता से लांच हो गया। प्रभात खबर लांच होने के ठीक पहले कंपनी ने जनसत्ता का दाम बढ़ा दिया। अमूमन होता यह है कि जब भी किसी शहर से कोई नया अखबार आने वाला होता है तो वहां पहले से छप रहे सारे अखबार अपनी कीमत घटा लेते हैं ताकि सर्कुलेशन न गिरे। पर प्रबंधन ने जनसत्ता के लिए उल्टा काम कर दिया। अब कोलकाता के हिन्दी भाषियों को हरिवंश जी के संपादकत्व में निकलनेवाला अखबार प्रभात खबरमिल गया जो वहां जनसत्ता जैसे एक अच्छे और स्थापित अखबार का विकल्प बन गया। उधर जनसत्ताका दाम भी बढ़ा दिया गया था जो अखबार के लिए बहुत घातक साबित हुआ। नतीजा यह हुआ कि लड़खड़ा रहा जनसत्ता पूरी तरह धराशायी हो गया। विज्ञापन से लेकर प्रसार तक सबकुछ काफी घट गया। इस चुनौती से निपटने की बजाए जनसत्ता अपनी मौत मरने लगा। कंपनी के फ्लैगशिप अखबार इंडियन एक्सप्रेस के कोलकाता से लांच होने के बाद कंपनी का सारा फोकस इंडियन एक्सप्रेस को जमाने पर ही रहा। यह भी एक मीठा जहर ही था जो जनसत्ता को धीरे-धीरे तिल-तिल करके मार रहा था।

इसके बाद जनसत्ता को व्यवस्थित करने की कभी कोशिश ही नहीं की गई। बस संस्करण निकलता रहा पर बाजार से जनसत्ता लगभग गायब हो गया।

अखिरकार एक दिन अचानक स्थानीय संपादक श्याम आचार्य को विदा कर दिया गया। उनकी विदाई भी बड़े ही अपमानजनक ढंग से हुई। वे दफ्तर काम पर आए थे पर आते ही गेट पर ही उन्हें रोक दिया गया और कह दिया गया कि उनकी सेवाएं आज से समाप्त कर दी गई हैं और वे दफ्तर के भीतर नहीं जा सकते। बड़ी मुश्किल से गेट पर तैनात सुरक्षाकर्मियों की मानमनौव्वल करने के बाद वे दफ्तर में दाखिल होकर अपनी मेज के दराज से अपनी निजी डायरी ले पाए। इस अचानक हुए फैसले की वजह से दफ्तर के लोग, खासकर संपादकीय विभाग के लोग उनको कोई फेयरवेल भी नहीं दे पाए।

संपादक पद से श्याम आचार्य की इस विदाई के बाद स्थानीय तौर पर अब कमान अमित प्रकाश सिंह को सौंपी जानी चाहिए थी पर ऐसा नहीं किया गया। अचानक दिल्ली से शंभूनाथ शुक्ल को बुलाकर उन्हें स्थानीय संपादक बना दिया गया। पर तब तक जनसत्ताको बेहतर बनाने के लिए बहुत कुछ नहीं बचा था। इसी दौर में तीन चार लोगों को वीआरएस दे दिया गया। स्थिति इतनी बिगड़ी कि अमित प्रकाश सिंह को भी दिल्ली रवाना कर दिया गया। आखिरकार जब शंभुनाथ जी भी चले गए तो ओम थानवी जी ने शैलेन्द्र श्रीवास्तव को संपादकीय इंचार्ज बना दिया। प्रिंट लाइन में उनका नाम भी छपने लगा। अब नाराज होने की बारी पलाश विश्वास की थी। पलाश विश्वास ने कुंठित होकर काम में रूचि लेना कम कर दिया। इससे पहले संपादक श्याम आचार्य जी ने जब जनसत्ता में पहली दफा और शायद आखिरी बार एडिटोरियल की प्रोमोशन सूची जारी की थी तो उसमें उप संपादक अनिल त्रिवेदी को सीनियर सब एडीटर या चीफ सब एडीटर नहीं बनाया गया था। इससे अनिल त्रिवेदी काफी निराश हो गए थे और उन्होंने विरोध स्वरूप इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद अनिल त्रिवेदी अमर उजाला चले गए। उन्होंने अमर उजालाके बरेली और मेरठ संस्करणों में काम किया और फिर वे वहां स्थानीय संपादक भी हुए। शैलेन्द्र श्रीवास्तव के जाने के बाद मांधाता सिंह दिल्ली से कोलकाता संस्करण के लिए कोआर्डिनेशन करने लगे। वैसे भी तब तक सारे पेज दिल्ली में ही बनने लगे तो करने को वहां बहुत कुछ बचा ही नहीं था। इस मीठे जहर की वजह से अखबार से लोग चले गए फिर भी जनसत्ता को व्यवस्थित करने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। 

कोलकाता जनसत्ता में आखिर में प्रबंधन की संपूर्ण जिम्मेदारी बाद में आए असिस्टेंट मैनेजर वी.श्रीनिवासन पर डाल तो दी गई पर उनके पास जनसत्ता के लिए कुछ करने का अधिकार ही नहीं था। सबकुछ दिल्ली स्थित कार्यकारी संपादक ओम थानवी पर निर्भर था। कहते हैं कई बार सवाल उठाए जाने पर दबे स्वर में कार्यकारी संपादक ओम थानवी और उनके बाद के कार्यकारी संपादक मुकेश भारद्वाज यही जताते रहे कि इन मामलों में वे कुछ नहीं कर सकते। उनके हाथ बंधे हुए हैं। सारा कुछ कंपनी के सीईओ शेखर गुप्ता देख रहे हैं। असिस्टेंट मैनेजर वी, श्रीनिवासन मजीठिया देने की घोषणा के बाद दिल्ली बुला लिए गए और उन्होंने दिल्ली में एक महीने रहकर कोलकाता के सभी कर्मियों को निचले दर्जे के मजीठिया रैंक में डाल दिया। उनके इस शोषण वाले फैसले के शिकार संपादकीय विभाग के सभी लोग हुए। यह कार्रवाई दिल्ली और मुंबई के प्रबंधकों को इतनी भाई कि इस व्यक्ति (श्रीनिवासन) को एक तरह से कार्यकारी प्रबंधक के भी सारे अधिकार दे दिए गए। अन्य संस्करणों में भी यह तकनीक काफी हद तक अपनाई गई। कोलकाता में तो श्रीनिवासन के पास दफ्तर बदलना, रेनोवेशन कराना और जमीन खरीदने आदि से लेकर प्रिटिंग प्रेस भिजवाने, कागज खरीदने और अखबार की प्रिंटिंग आदि से लेकर नियुक्ति तक के असीमित अधिकार हो गए। आज भी वहां उन्हीं श्रीनिवासन जी का एकछत्र राज चल रहा है। कोलकाता में एक और मैनेजर आए थे अशोक ओझा जो गुजरात के थे। पर वे ज्यादा दिन टिक नहीं पाए। स्थिति भांपकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी। उनके बाद से कोलकाता में  श्रीनिवासन ही वर्किग एंड कमांडिंग मैनेजर रहे हैं।

कोलकाता संस्करण में हालत यह थी कि मजीठिया वेतनमान लागू होने से पहले तक जनसत्ता के उन कर्णधारों की बड़ी दुर्गति हुई जिन्होंने जनसत्ता के साथ ही जीना मरना तय कर रखा था। वे लोग हालात डांवाडोल होने पर वहां भी टिके रहे। वे अब इस उम्र में कहीं जा भी नहीं सकते थे। जाएं भी तो कैसेनौकरी के27 सालों बाद भी वहां सभी उप संपादक ही रह गए। काम सब तरह का किया पर कोई प्रोमोशन नहीं दिया गया। रिपोर्टिंग कीसंस्करण निकाला पर किसी को एक पद का भी प्रोमोशन नहीं मिला।   

कंपनी की एक रणनीति यह भी समझ में आई कि कुछ मत करोफिर भी जनसत्ता के लोग खुद ही पलायन कर जाएंगे। दरअसल, कोलकाता जनसत्ता के लोगों को कभी कोई इंक्रीमेंट या प्रोमोशन नहीं मिला। जो इंक्रीमेंट मिलता था वह न जाने कब का बंद हो चुका था। आखिर में वी.श्रीनिवासन ने लोगों को बहुत लोअर कैटेगरी में रखकर मजीठिया का वेतनमान दिया। इससे संपादकीय विभाग के लोगों की स्थिति में बहुत मामूली तौर पर ही सुधार हो पाया। पर कंपनी की इस शोषण नीति सेजनसत्ता निरंतर कालकवलित होता रहा। अबजनसत्ता के साथ घटित इस दुर्व्यवस्था को संजीवनी तो कह नहीं सकते। इस मीठे जहर से जनसत्ता कभी उबर भी नहीं सका। और फिर वर्ष 2019 का वह दिन भी आ ही गया जब सारे लोग रिटायर हो गए और कोलकाताजनसत्ता में कुछ भी नहीं बचा। पूर्वी भारत एक बेहतरीन अखबार से पूरी तरह वंचित हो गया। इससे शायद रामनाथ गोयनका जी का कोलकाता में इंडियन एक्सप्रेस का पूर्वी भारत का मुख्यालय बनाने का सपना भी टूट गया। जनसत्ता के इस पतन की कहानी के बावजूद आज की तारीख में अंकुरहाटी में बनी इंडियन एक्सप्रेस की विशाल इमारत भी शायद कुछ अच्छा होने की बाट जोह रही है। 


83. मालिकों के लिए सिर्फ एक प्रोडक्ट भर होता है अखबार

दरअसल, किसी अखबार के पाठक और उस अखबार में काम करने वाले पत्रकार पत्रकारिता और अपने अखबार के प्रति जो पवित्र भाव रखते हैं, अखबार मालिकों का अपने अखबार के प्रति वैसा कोई भाव नहीं होता। अखबारों के मालिक आमतौर पर कुछ अपवादों को छोड़कर अखबार को या पत्रिका को उस निगाह से कभी नहीं देखते। मालिकान उसे बस एक कमर्शियल प्रोडक्ट के रूप में देखते हैं। उनसे उनका कोई भावनात्मक लगाव नहीं होता बल्कि सिर्फ एक व्यावसायिक संबंध भर होता है। लाभ में वृद्धि की जगह लगातार घाटे की स्थिति आने पर अखबार के मालिक अखबार के साथ वही बर्ताव करते हैं जो कोई एक किसान दूध देने में अक्षम हो गई अपनी गाय के साथ करता है। जहां तकजनसत्ता का सवाल है यह बड़े हाउस से निकलने वाले अखबारों में से एक महत्वपूर्ण अखबार रहा है। इसके उत्थान के भी कारण रहे हैं और पतन के भी। पत्रकारिता का इतिहास लिखने वाले इस पर बड़े ऑब्जेक्टिव ढंग से बात कर सकते हैं। इसमें एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अखबार के उत्थान और पतन दोनों के पीछे तत्कालीन राजनीतिक कारण भी बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं। इसके गिरावट के कारणों को समझने की कोशिश की जाए तो इंडियन एक्सप्रेसअखबार समूह के मालिक रामनाथ गोयनका की मृत्यु,जनसत्ता के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी के जीवित रहते ही अखबार पर उनकी ढीली पड़ती पकड़, इसमें काम करने वाले दिल्ली के पत्रकारों की महत्वाकांक्षाओं की टकराहट, रामनाथ गोयनका जी के बाद के मालिक और उनके द्वारा अखबार में लाए गए हिन्दी के धुर विरोधी हुक्मरानों का हिंदी के प्रति सौतेला व्यवहार, दिल्ली के बाहर के महानगरों से निकलने वाले संस्करणों के साथ कम्युनिकेशन गैप और उनकी उपेक्षा, संपादकों और वहां काम करने वाले पत्रकारों के बीच कोऑर्डिनेशन का अभाव आदि-आदि तो बाहर से भी दिखते हैं, पर इसके बहुत से भीतरी कारण भी होंगे जिन्हें भीतर के लोग आंशिक या पूर्ण तौर पर जानते होंगे। कुल मिलाकर यह पत्रकारिता के इतिहास पर शोध करने वालों के अनुसंधान का विषय है। अलग-अलग संस्करणों के पतन के कुछ स्थानीय कारण भी हैं जिसमें संपादक और उनकी टीम द्वारा अपने पाठकों की रुचि के साथ तालमेल बैठाने में असफलता और अरुचि भी एक महत्वपूर्ण कारण रहा है। कोलकाता में ही प्रभात खबरने अपने संस्करण को सफल बना कर यह साबित कर दिया था। खैर, इतिहास बहुत ही निर्मम होता है। टाइम्स ग्रुप की बहुचर्चित रही अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिकाइलस्ट्रेटेड वीकली के मशहूर संपादक, साहित्यकार, इतिहासकार और मजबूत स्तंभकार खुशवंत सिंह को जब मालिकों ने पद से हटाया तो बाद चलकर उन्होंने राज्यसभा टीवी को दिए अपने एक इंटरव्यू में इस बारे में बड़ी मार्मिक बातें कहीं थीं जो सुनने लायक है। खुशवंत सिंह एक कुशल और सफल संपादक थे। अपने उस टेलीविजन इंटरव्यू में वे कहते हैं कि मैं इस पत्रिका को अपने पुत्र की तरह प्यार करता था लेकिन मालिकों ने मुझे याद दिला दिया कि मैं इसकी धाय मां से ज्यादा कुछ नहीं हूं।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....


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