सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 47

 

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की सैंतालीसवीं किस्त
पत्रकारिता की कंटीली डगर
भाग- 47


110. वेतन में धोखा और सैलरी स्लिप झटक लेने का दस्तूर

दैविक जागरण में मुझे नियुक्ति पत्र नहीं मिला था। मिलना भी नहीं था। वेतन में मैंने 25 हजार मांगा था। पर मुझे 20 हजार रुपए देने का वादा किया गया था। लेकिन शुरू के कई महीनों तक तनख्वाह बनी ही नहीं। कुछ पता ही नहीं चल रहा था कि कितनी तनख्वाह बन रही है। पटना से लेकर सिलीगुड़ी और फिर वापस पटना तक के करीब 5 महीने तक हर महीने सिर्फ एडवांस ही एडवांस मिलता रहा। कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। वहां के कई पुराने लोगों से पता चला कि दैनिक जागरण में हमेशा से ऐसा ही होता आया है। करीब 5 महीने बाद सैलरी स्लिप बनी पर वह हस्ताक्षर कराकर तुरंत वापस ले ली गई। उसकी सिर्फ एक झलक भर ही देख पाया। फिर तो हर महीने उसकी एक झलक ही देखने दी जाती थी। एकाउंट्स विभाग का चपरासी तीन प्रतियों में बनी सैलरी स्लिप पर हस्ताक्षर करते ही पूरी सैलरी स्लिप हाथ से झपट लेता था और मुझे कैशियर के कमरे तक साथ ले जाता था। चपरासी कैशियर को मेरी सैलरी स्लिप पकड़ाता था और कैशियर कैश-काउंटर से मुझे सैलरी का नकद भुगतान कर देता था। पता चला कि दैनिक जागरण का यही दस्तूर है। उन दिनों बैंक खाते में तनख्वाह नहीं दी जाती थी। करीब दो-तीन साल बाद सबका बैंक में सैलरी एकाउंट खुलवाया गया था।

दैनिक जागरण में काम के घंटे काफी ज्यादा थे। जनसत्ता में जहां 6 घंटे की शिफ्ट होती थी तो दैनिक जागरण में करीब 9-10 घंटे काम करने पड़ते थे। आठ घंटे तो कम से कम थे ही। श्रमजीवी पत्रकार कानून का वहां कोई मतलब ही नहीं होता था। वहां संपादक के पैर छूने का कल्चर था। सभी ऐसा करते थे। केवल मैं ही अपवाद था। इसका मुझे नुकसान भी हुआ। हर कोई अपने सीनियर को भैया बोलता था। संपादकजी यानी शैलेंद्र दीक्षित जी को तो सभी भैया ही कहते थे। शैलेंद्र जी का स्वाभाव बहुत मधुर था। वे कभी किसी पर गुस्सा नहीं करते थे। पर शैलेंद्र जी रोज शाम को थोड़ी शराब जरूर लेते थे और उनपर दफ्तर में शाम 8 से 10 बजे तक उसके नशे का प्रभाव दिखाई देता था। रात 10 बजे वे घर चले जाते थे। शैलेंद्र जी नशे के असर से रात को कई बार आपा खो दे देते थे और तब वे पूरे एडिटोरियल में एकदम गदर मचा देते थे। पिनक चढ़ने पर शैलेंद्र जी किसी पर भी बेमतलब बुरी तरह बरसने लग जाते थे। नौकरी से निकाल बाहर करने की धमकियां भी दे देते थे। मुझे भी उन्होंने दो-तीन बार देख लेने और नौकरी से निकाल देने की धमकी दी थी। पर वे वैसा कुछ करते नहीं थे। वह सब वे सिर्फ नशे का असर होने की वजह से करते थे। कभी-कभी उनको चढ़ जाती थी। कई बार शाम सात-आठ बजे के आसपास जब कभी मैं छुट्टी या एडवांस वगैरह का कोई आवेदन लेकर उनके पास जाता था तो वे बड़े प्यार से कह देते थे कि अभी नहीं, यह सब काम दिन में कराइए।

शैलेंद्र जी कानपुर के थे और दैनिक जागरण के पुराने उप संपादक भी रह चुके थे। दैनिक जागरण तो जैसे उनके खून में रच बस गया था। वे पटना से दैनिक जागरण अखबार शुरू करने के लिए ही खास तौर पर कानपुर से पटना भेजे गए थे। एक समय में वे अखबार शुरू करने के लिए पटना में दफ्तर की जगह की तलाश में शहर में रिक्शे पर घूमा करते थे। वे पटना क्या आए पटनिया होकर ही रह गए। फिर तो कुछ साल बाद पटना में एक घर खरीदकर पटना को ही उन्होंने अपना परमानेंट घर बना लिया। बिहार का कल्चर उनको इतना भाया कि वे छठ का काफी कठिन माना जानेवाला त्योहार भी खुद छठ व्रती बनकर करने लगे। उन्होंने पटना में ही अंतिम सांस ली। अखबार में काम करते हुए शैलेंद्र जी के साथ बीता वह समय समाचार लेखन की नई लयों और नई दृष्टियों को स्थापित करता है जो मेरी अपनी कृतियों की रचना और चिंतन की प्रक्रिया के लिए अंतर-परागण का काम करते हैं। आदरणीय शैलेंद्र भैया को सादर नमन।

111. अखबार में कानपुरवाद, क्षेत्रवाद और जातिवाद

दैनिक जागरण मुख्य रूप से कानपुर शहर का अखबार है। एक निहायत रीजनल अखबार। नेशनल तो वह बहुत साल बाद बना। इसके मालिकों की पीढ़ियां कानपुर में ही रहीं। इसलिए इसके तमाम संस्करणों में संपादक अमूमन कानपुर का ही होता है। डेस्क के पत्रकार और अखबार के दूसरे कर्मचारी भी ज्यादातर कानपुर के ही होते हैं। इसलिए दैनिक जागरण के पूरे सेटअप में कानपुरवालों की ज्यादा चलती है। दैनिक जागरण में राजनीति भी कुछ इसी पैटर्न पर होती है। पटना दफ्तर में कानपुर वर्सेज रेस्ट आफ द यूपी और यूपी वनाम बिहार की फीलिंग चलती रहती थी। इन्क्रीमेंट, बोनस, प्रोमोशन सबकुछ पर कानपुरवाद और क्षेत्रवाद हावी रहता था। बिहार तो वैसे भी जातिवाद करनेवाला राज्य है। यहां बात-बात में जाति पूछी जाती है। बेवजह भी लोग जाति पूछ बैठते हैं। सो जातिवाद और क्षेत्रवाद की यह फीलिंगदैनिक जागरण पटना में भी कूट-कूट कर भरी हुई थी। यूपी वाले क्षेत्रवाद करते थे और बिहारवाले क्षेत्रवाद के साथ जातिवाद भी। अखबार के एडिटोरियल तक में भी क्षेत्रवाद और जातिवाद का असर दिखता था। इसका भी नुकसान सबको होता था। मुझे भी हुआ। इसके उलट 1985-86 में मैंने जब पटना के उस समय के बहुचर्चित अखबार पाटलिपुत्र टाइम्स में नौकरी की थी तो वहां संपादकीय विभाग में कई राज्यों के लोग काम करते थे। पर वहां क्षेत्रवाद और जातिवाद की गंदी राजनीति कभी देखने को नहीं मिली थी। पटना आज में भी थोड़े समय तक काम करने का अवसर मिला था। आज भी तो उत्तर प्रदेश का अखबार है। बनारस में उसकी जड़ें हैं। पर पटना आज के दफ्तर में भी कभी क्षेत्रवाद और जातिवाद की राजनीति से भेंट नहीं हुई थी। पटना सेनवभारत टाइम्स भी बरसों तक छपता रहा। नवभारत टाइम्स में कई राज्यों से आए पत्रकार थे। हिन्दुस्तानअभी भी छप रहा है। उन दिनों वहां भी कई राज्यों से आए पत्रकार काम कर रहे थे। पटना में रहने और काम करने के दौरान इन दोनों अखबारों के संपादकीय विभाग में खूब आना-जाना था। पर वहां भी कभी कोई क्षेत्रवाद और जातिवाद का भेदभाव उस समय दिखाई नहीं दिया था।

मैंने ज्यादा समय बिहार से बाहर ही नौकरी की। ज्यादातर समय दिल्ली में बीता। पर दिल्ली में कभी यह भावना भी नहीं आई कि फलां इस राज्य का है और फलां उस राज्य का। सभी एक दूसरे को एक ही परिवार का सदस्य समझते थे। वहां मन में न कभी क्षेत्रवाद की भावना पैदा हुई और न जातिवाद की। कभी इस तरह की कोई क्षेत्रवाद और जातिवाद की राजनीति भी देखने को नहीं मिली। इसलिए दैनिक जागरण में मुझे इस सबसे थोड़ी घुटन भी होती थी। इन कारणों से मैं दैनिक जागरण पटना में लगभग 4 साल या उससे थोड़ा अधिक समय तक ही रहा। फिर दिल्ली के उस समय के एक बड़े टीवी न्यूज चैनल वॉयस ऑफ इंडिया में काम मिल गया तो मैंने दैनिक जागरण की नौकरी छोड़ दी और दिल्ली चला गया।

दैनिक जागरण पटना में एजेंसी की अंग्रजी खबरों का अनुवाद कुछ ही लोग कर पाते थे जिसमें मैं भी शामिल था। कुछ साल बाद मुझे रिपोर्टरों की हिन्दी की कॉपियां सुधारने के काम में लगा दिया गया क्योंकि ज्यादातर की कॉपियां बिल्कुल खराब होती थीं और उनमें भाषा की गलतियां भी खूब रहती थीं। मैने एडिशन भी निकाला पर बहुत कम। नहीं के बराबर। मैं जब भी पहला पेज बनवाता था तो उसमें रीजनल टेस्ट आने की बजाए नेशनल खुशबू आने लगती थी जो संपादकजी को पसंद नहीं आता था। संपादकजी बिल्कुल बिहार के रंग में रंगा लोकल टेस्ट वाला अखबार निकालना चाहते थे। पटना से दैनिक जागरण का संस्करण शुरू भी इसी मकसद से किया गया था। वे नेशनल खबरों को पूरी तरह दरकिनार कर देने या फिर उन्हें अंदर के पन्नों पर कहीं सिंगल कॉलम या फिलर में ले लेने को कह देते थे। यही मुझसे नहीं हो पाता था और लाख कोशिश करके भी मैं इसमें फेल हो जाता था। लिहाजा शैलेंद्रजी ने मुझे अखबार की भाषा सुधारने की जिम्मेदारी दे दी। रिपोर्टरों की कॉपियां फाइनल होने से पहले मेरे पास भेज दी जाती थी।

दैनिक जागरण पटना में कुछ चीजें अजीबोगरीब भी थीं। पर यह दैनिक जागरण के कल्चर के अनुरूप ही था। वहां लोग किसी एटेंडेंस रजिस्टर पर हाजिरी नहीं बनाते थे। दफ्तर की बिल्डिंग के बाहर एक कमरा था जिसमें अखबार कंपनी का  एक सिक्युरिटी गार्ड बैठता था। सिक्युरिटी गार्ड दैनिक जागरण कंपनी का अपना होता था, किसी सिक्युरिटी एजेंसी का नहीं। वही सिक्युरिटी गार्ड अखबार के कर्मचारियों की हाजिरी लगाया करता था। पत्रकारों का भी। उस समय फिंगर प्रिंट स्कैन करनेवाली एटेंडेंस मशीनें नहीं होती थीं। अखबार के कर्मचारियों को कोई आईकार्ड नहीं दिया गया था। आईकार्ड कई साल बाद सबका एक ही साथ बना था। पटना यूनिट में तब शायद पहली बार बना था सबका आईकार्ड। आईकार्ड में किसी कर्मचारी या पत्रकार का पदनाम नहीं लिखा गया था। सिर्फ उसका विभाग लिखा गया था। मसलन पत्रकारों के लिए संपादकीय विभाग। यानी न कोई नियुक्ति पत्र, न सैलरी स्लिप, न फॉर्म-16 और न सही आईकार्ड। यह भीदैनिक जागरण कंपनी का दस्तूर ही था। पर अब लोग बताते हैं कि स्थितियां बदली हैं। अब नियुक्ति पत्र भी मिलता है।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

(यह मेरे ब्लॉग ganeshprasadjha.blogspot.com पर भी उपलब्ध है)


बुधवार, 26 अक्तूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 46


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की छियालीसवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 46


107. दैनिक पुर्वोदय और देशबंधु का दिल्ली संवाददाता

गाजियाबाद वाला मकान छिन जाने के बाद मैं दिल्ली के अशोकनगर की एक गंदी बस्ती में एक कमरा किराए पर लेकर रहने लगा था। मेरे पास वही थोड़ा सा सामान था जो एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस के अधिकारियों ने मेरे घर से निकालकर बाहर सड़क पर फेंक दिया था। बहुत कोशिश के बाद मुझे गुवाहाटी से निकल रहे एक हिन्दी अखबार दैनिक पुर्वोदय में दिल्ली ब्यूरो प्रमुख का काम मिल गया था। पर ब्यूरो प्रमुख का यह पद सिर्फ कहने भर के लिए था। इस अखबार का दिल्ली में आईएनएस या कहीं और अपना कोई दफ्तर नहीं था। लिहाजा मैं आईएनएस के बाहर रहकर ही खबरें जुटाता और फिर फैक्स से भेजता था। दैनिक पुर्वोदय  बड़ी मुश्किल से मुझे कुछ पैसे देता था। यह नौकरी मैं कुछ ही महीने कर पाया। फिर रायपुर के अखबार देशबंधु से अखबार के संपादक ललित सुरजन जी की एक चिट्ठी आई जिसमें उन्होंने मुझे आईएनएस स्थित दफ्तर में ब्यूरो प्रमुख का काम करने का अवसर दिया। नियुक्ति के पहले उन्होंने मुझे रायपुर आने को कहा। मैं रायपुर गया और वहां हफ्ते भर रहकर देशबंधु का कामकाज देखा। फिर दिल्ली लौटकर आईएनएस में काम शुरू किया। पर यहां भी चार-पांच महीने ही नौकरी कर पाया। मैं ज्यादा खबरें भेज देता था और रात 8-9 बजे तक  काम करता रहता था। आईएनएस में दूसरे अखबारों के दफ्तरों में भी इतने समय तक तो पत्रकार रहते ही थे और काम होता रहता था। पर देशबंधु को अपना खर्च कम करना था सो उन्होंने मुझे मना कर दिया। मुझे वहां 11 हजार रुपए मिलते थे पर उन्हें और कम का आदमी चाहिए था। सो मेरे बाद उन्होंने 6 हजार रुपए में एक ट्रेनी पत्रकार को रख लिया और उसी से काम चलाने लगे।

108. दैनिक जागरण लुधियाना में तीन दिन की नौकरी

उन दिनों दैनिक जागरण का दफ्तर नोएडा के सेक्टर 62 नहीं पहुंचा था। पुराना दफ्तर सेक्टर 8 में था। उन्हीं दिनों नौकरी की तलाश में मैं दिल्ली और अनसीआर में स्थित अखबारों के दफ्तरों में भटकता रहता था। नौकरी के लिए दैनिक जागरण के नोएडा दफ्तर भी जाता रहता था। वहां एचआर में मेरी अखबार के नए शुरू होनेवाले शिमला संस्करण के लिए बात हुई। नौकरी की मेरी फाइल भी बना दी गई। पर यह बातचीत थोड़ी लंबी खिंच गई। करीब दो हफ्ते बाद मुझे लुधियाना जाने को कह दिया गया। वेतन बड़ी मुश्किल से 15 हजार तय हुआ। मैं लुधियाना गया भी। वहां काम करना शुरू किया। पर लुधियाना शहर में रहने की बड़ी दिक्कत थी।दैनिक जागरण का दफ्तर शहर से दूर था। वहां तक जाने के लिए दिन के समय तो ऑटो-टैंपो मिल जाता था पर रात को दफ्तर से शहर के होटल तक लौटने के लिए कोई सवारी नहीं मिलती थी। दफ्तर की तरफ से रात को  स्टाफ को घर तक छोड़ने की वहां कोई व्यवस्था या परंपरा नहीं थी। रात को सड़कें पूरी तरह सूनी हो जाती थीं। सिर्फ निजी वाहन वाले ही आते-जाते थे। तीन दिन तो मैं रात को दफ्तर से छूटने के बाद पैदल ही किसी तरह होटल तक आया। मेरे लिए इसे जारी रखना संभव नहीं था। लुधियाना में दैनिक जागरण ने नया-नया दफ्तर बनाया था। पर वहां दफ्तर में या उसके बाहर सड़क या चौराहे पर कहीं चाय तक नहीं मिलती थी। यह भी बड़ा तकलीफदेह था। सो मैंने चौथे दिन दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली। संपादक ने मुझे मनाने की खूब कोशिश की पर मैं अपने फैसले पर अडिग था सो लौट ही आया।

दिल्ली में बहुत कोशिश के बाद भी कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी। उस समय दैनिक जागरण ने नोएडा में पत्रकारिता और जनसंचार पढाने के लिए एक इंस्टीट्यूट खोला था जिसके सर्वेसर्वा हिन्दुस्तान में मेरे संपादक रहे अजय उपाध्याय थे। मैं नौकरी मांगने उनके पास भी गया था और खूब चक्कर काटे थे। वे मुझे कई महीने तक घुमाते रहे। अंत में उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि यहां कोई नौकरी नहीं है। इस मुफलिसी के दौरान मैंने दिल्ली में अपने कई मित्रों से उधार के रखा था। कर्ज का बोझ बढ़ता जा कहा था और नौकरी मिलने की कोई उम्मीद नहीं दिखाई दे रही थी। कुछ साथी हिम्मत जरूर देते रहे थे और लगातार कह रहे थे कि कुछ भी हो टूटना मत। पर मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी। मैंने तय किया कि अब बिहार लौटकर वहीं नौकरी की तलाश करूंगा। बस मैं अपने मकान मालिक को कुछ अग्रिम किराया देकर बिहार अपने गांव लौट आया और बिहार और झारखंड के अखबारों में नौकरी के लिए प्रयास करने लगा।

109. दैनिक जागरण पटना में नौकरी और शैलेंद्र जी का नेतृत्व

लंबी बेरोजगारी झेलने के बाद 2006 में मुझे दैनिक जागरण के पटना संस्करण में नौकरी मिली। पर मैंने पटना संस्करण को कभी एप्रोच नहीं किया था। मैंने कई अखबारों के मुख्यालयों में स्थित मालिकों और संपादकों को आवेदन और सीवी भेजी थी। एक आवेदन मैंनेदैनिक जागरण के बिहार यूनिट के मालिक सुनील गुप्ता जी को उनके कानपुर दफ्तर के पते पर भेजा था। आवेदन तो पहले भी कई बार भेजा था पर इस बार लगता है उनकी नजर उस पर पड़ गई थी। उन्होंने मेरा आवेदन पटना सस्करण के वरिष्ठ संपादक शैलेंद्र दीक्षित जी को भेज दिया था। फिर शैलेंद्र जी ने मुझे पत्र भेजकर पटना बुलाया था। जाते ही मुझे वहां ससम्मान नौकरी मिल गई। पर वेतन बड़ी कंजूसी से 15 हजार तय हुआ। शैलेंद्रजी ने वादा तो 20 हजार देने का किया पर कई महीने बाद जाकर पता चला कि तनख्वाह तो 15 हजार ही तय किया गया है। मैंने अपनी सीवी निकलवाकर देखी थी जिसपर शैलेंद्रजी ने खुद लिखा था कि इनको 15 हजार पर रख लिया जाए। दैनिक जागरण में काम कर चुके एक पुराने साथी ने बताया कि यहां ऐसा होता है।

पटना में मुझसे कहा गया कि मेरी नियुक्ति सिलीगुड़ी संस्करण के लिए की जा रही है। शैलेंद्र दीक्षित ने बताया कि मुझे 15 दिनों तक पटना में रहकर अखबार का कामकाज समझ लेना है और फिर सिलीगुड़ी जाकर वहां एडीशन निकालना है। इसी दौरान मालिक सुनीलजी पटना आए तो शेलेंद्रजी ने मेरा उनसे परिचय कराया। उन्होंने सुनीलजी से कहा कि भैया यही गणेश झा जी हैं जिनके लिए आपने पत्र लिखा था। मैंने इनको आपके निर्देश के मुताबिक यहां रख लिया है। मेरे प्रति शैलेंद्रजी का व्यवहार बड़े ही आदरभाव वाला था। मैं दो हफ्ते पटना में काम करने के बाद सिलीगुड़ी चला गया। सिलीगुड़ी में हफ्ते भर कंपनी के खर्चे पर होटल में रुकने के बाद मैंने दफ्तर से करीब एक किलोमीटर दूर गुरुंग बस्ती मोहल्ले में किराए का घर लिया। मकान मालिक बिहार के छपरा जिले के थे जो कई पीढ़ियों पहले सिलीगुड़ी जाकर बस गए थे। दैनिक जागरण के सिलीगुड़ी संस्करण के संपादक थे धीरेंद्र श्रीवास्तव। मैंने एडिशन निकाला पर वह संपादक को पसंद नहीं आया। मेरा बनवाया पहला पेज उनको लोकल नहीं नेशनल लगा। उन्होंने अपने लोगों से पहला पेज अलग से भी बनवाया था सो वही लिया गया, मेरा वाला नहीं। फिर दूसरे और तीसरे दिन भी वही हुआ। वे मुझसे बिदके-बिदके रहने लगे। मैं उनको पूरा सम्मान देता था फिर भी वे नाहक मुंह फुलाए रहते थे। उनके साथ कोई दिक्कत जरूर रही होगी। रोज किच-किच होने लगी। यह खबर धीरेंद्रजी ही पटना शैलेंद्र दीक्षितजी को पहुंचाया करते थे। शैलेंद्रजी मुझसे भी अक्सर हाल-चाल पूछ लिया करते थे। किसी तरह तीन महीने बीते। एक दिन स्थानीय संपादक धीरेंद्रजी के पास पटना से शैलेंद्रजी का लिखित आदेश आ गया मेरे पटना तबादले का। अभी तो मैं सिलीगुड़ी को समझ भी नहीं पाया था। सोचा था किसी दिन साप्ताहिक अवकाश लेकर दार्जीलिंग घूम आउंगा। बगल में ही भूटान भी था। यह सब सोच ही रहा था कि अचानक वहां से रवानगी हो गई। अगले ही दिन मैं वहां से रिलीव हो गया और उसके एक दिन बाद मैंने पटना की बस पकड़ ली। फिर शुरू हो गया पटना संस्करण में काम करने का सिलसिला। पटना में करीब तीन महीने मैं होटल में ही टिका रहा। फिर दफ्तर के बिल्कुल पास श्रीकृष्णनगर में घर ले लिया। उस समय दैनिक जागरणका पटना दफ्तर किदवईपुरी मोहल्ले में था। 

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....



मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 45

एक पत्रकार की अखबार यात्रा की पैंतालीसवीं किस्त

पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 45

105. हाउसिंग लोन का खतरनाक जाल

अब आपको लोन में फंसाने की एक दूसरी कहना सुनाता हूं। जब मैंने हिन्दुस्तान की नौकरी शुरू की थी तो वहां दफ्तर में एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस लिमिटेडका भी एक एजेंट आया करता था। वह वहां किराए के घर में रहकर नौकरी कर रहे पत्रकारों को कर्ज लेकर घर लेने की सलाह दिया करता था और उन्हें समझा बुझाकर हाउसिंग लोन लेने के लिए पटाया करता था। हाउसिंग लोन वाला यह एजेंट कार लोन दिलवानेवाले बैंक के एजेंटों से भी पहले से हिन्दुस्तान के दफ्तर आता था। यह एजेंट मेरे पास भी कई बार आया था पर मैं उसे मना कर देता था क्योंकि मैं अपनी औकात जानता था।

मैंनेइंडियन एक्सप्रेस में नौकरी की थी यह जानने पर उसने मुझे बाताया कि वह इंडियन एक्सप्रेस में ड्राइवर की नौकरी करनेवाले बुद्धिनाथ सिंह का बेटा है। बुद्धिनाथ जी बड़े सज्जन आदमी थे और वे भी सैकड़ों बार कंपनी की कार से रात को मुझे घर पहुंचा चुके थे। मैं उनको अच्छी तरह जानता था। इसी परिचय से उस एजेंट ने मुझे एलआईसी हाउसिंग का लोन लेकर घर खरीदने के लिए तैयार कर लिया। एजेंट ने मुझे समझाया कि जितना मैं किराया देता हूं उतने पैसे में ही मेरा खुद का घर हो जाएगा। एजेंट की यह बात तो बड़ी अच्छी लगी। दफ्तर के कई साथियों ने भी जोर डाला कि मैं लोन लेकर अपना घर खरीद लूं। इस तरह मैंने एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस से 6 लाख रुपए का लोन लेकर गाजियाबाद के वैशाली में एक छोटा घर ले लिया था। पर अचानक हिन्दुस्तान की नौकरी छिन जाने की वजह से लोन की ईएमआई नहीं दे पा रहा था। बाद में हिन्दुस्तानकी नौकरी का पीएफ का जमा पैसा भी निकलवाकर एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस को देकर अपनी ईएमआई रेगुलर करवाई थी। पर आगे फिर पैसे न चुका सकने के कारण मैं फिर से डिफॉल्टर हो गया। कुछ समय बाद एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस कंपनी ने मुझे नोटिस भेजकर परेशान करना शुरू किया। लोन दिलवाने वाला वह एजेंट भी मुझे आकर धमकाने लगा था। मकान दिलवानेवाला प्रोपर्टी डीलर भी आकर धमकियां देता था। एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस वाले, प्रोपर्टी डीलर और एजेंट सभी मिले हुए थे। सभी चाहते थे कि यह मकान जब्त होकर खाली हो जाए तो हम इसे फिर से बिकवाएं और उसमें दोबारा कमीशन खाएं। आखिर एक दिन सुबह-सुबह एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस के कुछ अधिकारी और कर्मचारी कुछ बाउंसरों को साथ लेकर आ गए और मेरे घर का सामान बाहर गली में फेंकने लगे। उन्होंने कुछ सामान बाहर फेंका और फिर मुझे घर से बाहर निकालकर घर में अपना ताला जड़कर सील लगा दिया। बाहर के दरवाजे पर मुझे खड़ा करके एक तस्वीर ली गई। बाहर दरवाजे पर एक नोटिस चिपका दिया कि लोन नहीं चुकाने पर यह मकान जब्त कर लिया गया है।

मकान छिन जाने पर मेरे पास रहने का कोई ठिकाना नहीं बचा था। बाहर फेंके गए सामान उठाकर मैं उसी इलाके में रह रहे अपने गांव के दूर के एक रिश्तेदार आलोक झा के घर चला गया। इस तरह मैंने लोन पर खरीदा गया मकान और दिल्ली में बरसों की नौकरी से हुई कमाई से जुटाए गए घर के सामान भी खो दिए। अपना वह सामान भी मुझे फिर कभी नहीं मिल पाया। एलआईसी हाउसिंग वालों ने बताया था कि नियमानुसार एक निश्चित समय के भीतर 5 हजार रुपए की फीस देकर मैं अपने जब्त मकान की सील खुलवाकर अपना सामन ले सकता हूं। पर उन दिनों मेरी स्थिति ऐसी नहीं थी कि मैं 5 हजार रुपए की मोटी फीस भर सकूं। मैं इस 5 हजार की रकम का इंतजाम नहीं कर पाया। 

लगभग महीने भर बाद मैंने वहीं पूर्वी दिल्ली के नोएडा से लगे अशोक नगर में एक निम्नवर्गीय कालोनी में 2 हजार रुपए किराए पर एक कमरा लिया था। पर दिल्ली में नौकरी का कहीं कोई इंतजाम न होने पर मैं पटना के अखबारों में नौकरी तलाशने बिहार चल पड़ा। सोचा अगर बिहार में कहीं काम मिल गया तो आकर अपना बचाखुचा सामान ले जाउंगा। बिहार रवाना होने से पहले एक मित्र से उधार लेकर मकान मालिक को तीन महीने का अग्रिम किराया दे आया था। मैं बिहार अपने गांव चला आया। पर बिहार आने पर भी कई महीनों तक काम नहीं मिल पाया। फिर भी नौकरी तलाशने का प्रयास जारी रखा। आखिरकार करीब 8-10 महीने बाद मुझे पटना के दैनिक जागरण में नौकरी मिल गई। तनख्वाह मिलने पर मैं अपना सामान लाने दिल्ली के न्यू अशोक नगर गया तो वहां देखा कि मेरे मकान मालिक शशिनाथ ने वह कमरा एक दूसरे किराएदार को दे रखा था। उस कमरे में मेरा कोई भी सामान नहीं था। सामान मांगने पर मकान मालिक ने कहा कि “तुम तो कमरा खाली कर गए थे फिर कौन सा सामान लेने आए हो। यहां तुम्हारा कोई सामान नहीं है।“ इस तरह दिल्ली में बरसों की अखबार की नौकरी से अपनी जीवनभर की कमाई से जोड़ा गया मेरा वह सब सामान भी चला गया।

बाद में गाजियाबाद के वैशाली की कालोनी में मैं अपने उस जब्त हो गए मकान पर भी गया। वहां जाने पर पता लगा कि एलआईसी हाउलिंग ने मेरा वह मकान 24 लाख में बेचा दिया था। एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस से मकान खरीदनेवाले ने ही मुझे ऐसा बताया। उस खरीदार ने यह भी सुना था कि यह मकान पहले मेरे नाम था। वहां वैशाली की उस कॉलोनी के मेरे पड़ोसियों ने बताया था कि मकान बेचने के पहले मेरे घर का सारा सामान एलआईसी हाउसिंग वाले ही ट्रक में भरकर ले गए थे। लोगों ने देखा कि मेरा टीवी, फ्रिज, अलमारी, टाइपराइटर, बिस्तर, कपड़े, बरतन वगैरह सबकुछ एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस के अधिकारी उठा ले गए। पर ऐसा करना तो गैरकानूनी ही था। यह तो ठगी और चोरी ही कही जानी चाहिए। फिर मेरा 6 लाख का मकान उन्होंने 24 लाख में बेचा। इसे भी तो ठगी ही कहेंगे। शायद इसीलिए एलआईसी हाउसिंग फाइनेंस के अधिकारी मुझे जल्दी से जल्दी उस मकान से बेदखल करना चाह रहे थे। लोग मेरी इस दुर्दशा पर कह रहे थे कि यह सब शनि की महादशा चलने का प्रभाव है। पर मेरा मानना है कि ये सारी स्थितयां जनसत्ता के तत्कालीन कार्यकारी संपादक ओम थानवी की वजह से पैदा हुईं। मेरी इस बदहाली के लिए सिर्फ और सिर्फ ओम थानवी ही जिम्मेदार हैं। जनसत्ता की मेरी नौकरी चलती रहती तो न तो दरिद्रता आती, न मैं बैंकों के इस कर्ज और ठगी के जाल में फंसता और न यह सबकुछ हुआ होता।

106. सस्ते अमेरिकी डॉलर का बाजार और कर्ज की फांस

अपना सबकुछ गंवाकर बैंकों के कर्ज के इस चंगुल से बाहर निकलने के कुछ समय बाद मुझे देश की बैंकिंग व्यवस्था से जुड़े एक जानकार ने बताया कि भारत में कारोबार करने वाले विदेशी बैंक कुछ देशों से काफी सस्ते अमेरिकी डॉलर लाकर भारत के कर्ज बाजार में लगाते हैं जिससे उन्हें मोटी आमदनी होती है। उन्होंने कहा कि ऐसे सस्ते अमेरिकी डॉलर ज्यादातर अमेरिका और जापान से आते हैं। बिल्कुल ईजी मनी की तरह। उन्होंने कहा कि दुनिया में सस्ते अमेरिकी डॉलर का बहुत बड़ा बाजार है। यह बाजार अमेरिका से लेकर जापान और दक्षिण अफ्रीका तक फैला हुआ है। इसी सस्ते डॉलर की वजह से भारत के विदेशी बैंक भारतीय बैंकों की तुलना में बहुत आसानी से और बिना किसी ना-नुकुर और बिना किसी को-लेटरल के यानी बिना कुछ गिरवी रखे कर्ज दे देते हैं और यहां तक की कर्ज देने में काफी रिस्क भी उठा लेते हैं। ये विदेशी बैंक कर्ज देते समय यह भी देखना जरूरी नहीं समझते कि जिसे वे कर्ज दे रहे हैं वह कमा कितना रहा है और वह अपनी कमाई से कर्ज चुका भी पाएगा या नहीं। उनकी मंशा सिर्फ ग्राहक को कर्ज के चंगुल में फांसकर बाद में उसका गला मरोड़ने की रहती है। इस तरह लाई गई ईजी मनी से बड़े-बड़े उद्योग धंधों को विस्तार दिया जाता है और बिल्कुल डूब चुके उपक्रम भी खरीद लिए जाते हैं। जानकार ने बताया कि भारतीय कार बाजार में पिछले दिनों आई शिथिलता के बाद कार उयोग को विस्तार देने और उत्पादन बढ़ाने के लिए कई बड़ी कार निर्माता कंपनियों को अरबों-खरबों डॉलर का कर्ज दिया गया है। उन कार निर्माताओं को आसान बाजार उपलब्ध कराने के लिए इसी ईजी मनी के जरिए ग्राहकों को बिना किसी किंतु-परंतु के प्री-एप्रूव्ड ऑटो लोन दिया जा रहा है। यह प्री-एप्रूव्ड ऑटो लोन एक प्रकार की फांस ही है जिसमें अनजाने ही फंसकर भोले-भाले मध्यमवर्गीय अपना सबकुछ गंवा रहे हैं। इसे जानकर मेरी आंख तो खुली पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और मैं अपना सबकुछ खो चुका था।

– गणेश प्रसाद झा

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शनिवार, 15 अक्तूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 43


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की तैंतालीसवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 43


100. अखबार की व्यवस्थाओं पर दिल खोल कर खर्च

कंपनी ने अखबार की व्यवस्थाओं पर दिल खोल कर खर्च किया। कंप्यूटर का जमाना आने से पहले की बात करें तो हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के मालिक बिड़लाजी ने अपने जमाने में अखबार की व्यवस्थाओं पर भले ही उतना खर्च नहीं किया फिर भी वह राजधानी से छपनेवाले किसी भी अखबार के दफ्तर से कमतर कभी नहीं था। दफ्तर की व्यवस्थाओं के मामले में इंडियन एक्सप्रेस के लाला से तो कई गुणा अव्वल। जब अखबारों में डेस्क पर कंप्यूटर लगने लगे तो बाकी अखबारों ने पहले लगाया और हिन्दुस्तान टाइम्स ने बहुत बाद में। पर देर आए दुरुस्त आए की लाइन पर काम करते हुए उसने सबसे बेहतर व्यवस्था बनाई। दफ्तर को बिल्कुल मनभावन बना डाला।

हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में काम करनेवाले लोग हमेशा से बड़े ढीले, सुविधाभोगी और कामचोर रहे। यह ग्रुप हमेशा से सरकारों के साथ मिलकर चलनेवाला रहा और आज तक कभी व्यवस्था विरोधी नहीं बन पाया। इन वजहों से इस ग्रुप के अखबारों में कभी आज तक तीखा तेवर नहीं आ सका। मेरे समय में ही चीजें बदलनी शुरू हो गईं थीं पर तेवर पुरानेवाले ही रहे थे। उन्हीं दिनों एक बार अखबार ने देश की आजादी के पुरोधा सुभाष चंद्र बोस पर उनकी गुमशुदगी को लेकर एक बेहतरीन सिरीज चलाई थी। शायद सिरीज का शीर्षक था- वे सुभाष बोस नहीं थे तो कौन थे?  सिरीज अंग्रेजी और हिन्दी दोनों अखबारों में साथ-साथ चल रही थी। इस सिरीज को एक जानेमाने बंगाली रिसर्चर अपनी गहन शोध के आधार पर लिख रहे थे। जब सिरीज कुछ आगे बढ़ी और सुभाष बाबू के गायब होने की कहानी साफ होनी शुरू हुई तो कहते हैं एक दिन अचानक कांग्रेस मुख्यालय से इस सिरीज को बंद करने का कड़ा फरमान आ गया और सिरीज तत्काल बंद कर दी गई। अखबार ने कांग्रेस के उस फरमान के आगे सिर झुका लिया।

इस अखबार का तेवर आज तक कभी नहीं बदला। पर बाकी चीजों में तो अब अच्छा खासा बदलाव आ गया है। पहले तो लगता था जैसे कर्मचारियों ने कंपनी को बंधक बना लिया है। शायद इन्हीं कारणों से सभी पुराने लोगों को बड़े बेआबरू होकर वहां से निकलना पड़ा। इस लड़ाई में जो थोड़े अच्छे लोग थे वे घुन की तरह पिस गए। कंपनी मालकिन बिड़लाजी की बेटी शोभना भरतीया के बिदेश से पढ़कर लौटे पुत्र ने विरासत की कमान संभालने की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी और वे दफ्तर में बैठकर कामकाज देखने-समझने लगे थे। बाद में शोभना भरतीया ने दफ्तर की इस कदर ओवरहॉलिंग की कि एक भी पुराने कर्मचारी को नहीं रहने दिया। कुछ साल पहले जो लोग ठेके पर लाए गए थे धीरे-धीरे उन सबको भी चलता कर दिया। पर उस समय तक दूसरे अखबारों में भी बड़े पैमाने पर वेजबोर्ड की तनख्वाह पानेवाले पुराने परमानेंट पत्रकारों और गैर-पत्रकारों को निकाल बाहर करने और नई भर्तियां ठेके यानी सीटीसी पर करने का सिलसिला शुरू हो गया था। बहुत सारे परमानेंट कर्मचारियों को वेतनवृद्धि का प्रलोभन देकर इस्तीफा दिलवाकर पहले ठेके पर लिया गया और फिर साल-दो साल बाद उनकी छुट्टी कर दी गई। एक बात यह भी देखने को मिली कि हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में पुराने लोगों में जो गिनती के थोड़े-बहुत अच्छे और काम के लोग थे, खासकर पत्रकार बिरादरी के लोग उन्होंने इस ग्रुप से बाहर निकलने के बाद पैसे की किल्लत भले झेली हो पर नई जगहों पर जाकर अपने पेशे में उन्होंने ज्यादा निखार पाया। वहां की उस पुरानी पर आरामतलब व्यवस्था की जड़ता में वे लोग अखबार के लिए चाहकर भी कुछ अच्छा नहीं कर पा रहे थे।

101. अखबार बेचने के लिए झूठ-फरेब का सहारा

वर्ष 2001 में दिल्ली में एक ब्लैक मंकी यानी उत्पाती बंदर की कहानी शुरू हुई जो सच्चाई नहीं बल्कि एक कोरी कल्पना मात्र थी जिसने जल्दी ही पूरी राजथानी में एक मास हिस्टीरिया का रूप ले लिया था। बाद में इसे एक बड़ी कॉरपोरेटिक व्यापारिक साजिश के तौर पर भी देखा गया। दिल्ली और आसपास की झुग्गियों और निम्नवर्गीय इलाकों में कहा गया कि आधी रात को बड़े-बड़े बालों वाला एक हमलावर काला बंदर (ब्लैक मंकी) प्रकट होता है और सोते हुए लोगों को नोचकर भाग जाता है। अखबारों में इस काले बंदर को तरह-तरह का भयानक प्राणी बताकर उसके बारे में तरह-तरह की कहानियां गढ़ी जाने लगी। अखबारों में इस काले बंदर के बारे में नमक-मिर्च लगा-लगाकर खबरें छापी जाने लगी। खबर लिखी जाने लगी कि इस विचित्र प्राणी के दहशत से डर कर कई लोगों ने उंची इमारतों से छलांग लगा दी और उनकी मौत हो गई। ऐसा हुआ भी होगा। अखबारों ने तो ब्लैक मंकी की ढेरों कहानियां छापी पर दिल्ली पुलिस को पूरे शहर में कहीं कभी कोई ब्लैक मंकी नहीं मिला।

हिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन ने अपने अखबारों के संपादकों को बाकायदा निर्देश जारी कर दिया कि ब्लैक मंकी की चटपटी खबरों को अधिक से अधिक छापा जाए। हिन्दुस्तान अखबार के तत्कालीन संपादक अजय उपाध्याय ने इस झूठ को छापने पर थोड़ा एतराज किया तो प्रबंधन ने उनको कड़ी हिदायत देकर कहा कि ऐसा मालिक के निर्देश पर कहा जा रहा है। उनसे प्रबंधन ने कहा कि ब्लैक मंकी की चटपटी खबरें छापने से अखबार का सर्कुलेशन खूब बढ़ रहा है इसलिए हमें ऐसी खबरों को बढ़ावा देना है। इस तरह हिन्दुस्तान ने भीब्लैक मंकी का झूठ जमकर बेचा। निम्नवर्गीय और निम्न-मध्यम वर्ग की कॉलोनियों में फैले इस मंकी मैनकी अफवाह को राजधानी के लगभग सभी छोटे-बड़े अखबारों ने एक झूठी त्रासदी बनाकर पेश किया और इसे जमकर भुनाया। कुछ समाज विज्ञानी तो बाद में यह भी कहने लगे कि यह किसी बड़े अखबार समूह की ही गढ़ी हुई कारस्तानी थी।

अखबार को चर्चा में लाने और इसके जरिए उसका सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए मालिकान अक्सर झूठ का सहारा लेते हैं। इसे समझाने के लिए राजस्थान पत्रिकाकी ओर से अपनाया गया एक वाकया बताता हूं। इस अखबार ने एक बार लेख लिखा कि सरकार की परिवार नियोजन योजनाओं की वजह से हजारों-लाखों आत्माएं जिनको इस धरा पर जन्म लेना था वे जन्म नहीं ले पाए और वे सभी त्रिशंकु की तरह आसमान में ही लटके हुए हैं। इस तरह वे बेकसूर आत्माएं सरकार की इस गलत योजना की वजह से अकारण ही कष्ट भोग रही हैं। सरकार की इस योजना ने प्रकृति के तय नियमों में अड़ंगा डाल दिया जिससे उन आत्माओं का आगे का भविष्य भी उलट-पुलट और गड्डमड्ड हो गया। अखबार के इस लेख पर एक बड़ी बहस छिड़ गई और उसके पक्ष-विपक्ष में विचारों की लड़ाई चल पड़ी जिसे अखबार लगातार छापता रहा। बहस चलती रही और पत्रिका की खूब चर्चा होती रही और उसका सर्कुलेशन भी खूब बढ़ गया।

ऐसी ही एक बहस 1987 में जनसत्ता ने शती प्रथा के समर्थन में एक संपादकीय लिखकर छेड़ दी थी। अखबार ने राजस्थान के देवराला गांव में एक महिला रूपकंवर के अपने दिवंगत पति की चिता पर बैठकर सती हो जाने की घटना का समर्थन कर दिया था। इस पर भी अखबार के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन हुआ था और लंबी बहस चल पड़ी थी। इस संपादकीय को लेकरजनसत्ता पर सती प्रथा का महिमामंडन करने के आरोप भी लगे थे। जनसत्ता के दफ्तर और अखबार के संपादक का घेराव भी किया गया था। लंबे समय तक अखबार में इस प्रकरण पर चर्चाएं चलती रही थीं। अखबार ने इस पर लंबी चर्चा चलाकर खूब सुर्खी बटोरी थी और इससे जनसत्ता का सर्कुलेशन भी खूब बढ़ गया था।

हिन्दुस्तान में मेरी नौकरी तीन साल के कांट्रेक्ट वाली थी। तीन साल बीत जाने के बाद भी मेरी नौकरी जारी रही थी। अनुबंध के नवीकरण की चिट्ठी मुझे तीन साल के पुराने अनुबंध के खत्म होने के करीब दो महीने बाद मिली थी। अनुबंध को आगे बढ़ाने की यह चिट्ठी सिर्फ एक साल के लिए दी गई थी। यानी मैं वहां सिर्फ साल भर और नौकरी कर सकता था। इस चिट्ठी के मिलने के साथ ही नौकरी की चिंता शुरू हो गई थी कि अगर साल भर बाद इस अनुबंध को फिर से आगे नहीं बढ़ाया गया तो मुझे फिर से बेरोजगारी झेलनी पड़ जाएगी और फिर एक नई नौकरी तलाशनी पड़ेगी। परिवार की आर्थिक हालत अच्छी नहीं होने की वजह से  मेरे लिए यह चिंता बहुत बड़ी थी। एक साल का एक्सटेंशन देने का मतलब ही था कि इसे अब और आगे नहीं बढ़ाया जाएगा। और हुआ भी वही। अगला एक साल पूरा होते-होते अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जाती रही। जिनके कहने पर मुझे यह नौकरी मिली थी उनके सत्ता से हट जाने से कंपनी को मुझे हटाने और नई सरकार की सिफारिश पर मेरी जगह किसी और को नैकरी देने का अवसर मिल रहा था। सो एक दिन कंपनी ने नौकरी का मेरा अनुबंध रद्द कर दिया।

102. सिंधिया खानदान की सिफारिश का ठुकराया जाना

टेलीविजन पत्रकारिता के प्रारंभिक दिनों में मैंने एक समय में जैन टीवी के लिए बाहर से कुछ फुटकर काम किया था। उसी दौरान कांग्रेसी नेता राजमाता विजयाराजे सिंधिया से परिचय हुआ था। फिर कांग्रेस अखबार में काम करने के दौरान भी कुछ कांग्रेसी नेताओं से भी अपना परिचय हो गया था। उनमें एक नाम माधवराव सिंधिया जी का भी था। हिन्दुस्तान की इस नौकरी को दोबारा पाने के लिए मैंने अब कांग्रेस के कद्दावर नेता माधवराव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया से मदद मांगी। यह तो सर्वविदित था किहिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में सिंधिया परिवार की खूब चलती है और माधवराव सिंधिया यानी बड़े महाराजजी की बात कंपनी कभी नहीं उठाती थी। उनकी सिफारिश पर लोग नौकरी पर रख लिए जाते थे। पर एक विमान हादसे में माधवराव सिंधिया की असमय मौत हो गई थी। अब मदद करनेवाले उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ही थे। सो मैं उनके पास ही गया। ज्योतिरादित्य सिंधिया मेरी मदद को राजी हो गए और उन्होंने मेरी अर्जी और सीवी अपनी सिफारिश के साथ हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप की मालकिन शोभना भरतिया जी को भेज दी। पर दुर्भाग्यवश उनकी सिफारिश स्वीकार नहीं की गई। शोभना भरतीया ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को भेजी अपने जवाबी चिट्ठी में कहा कि गणेश प्रसाद झाहिन्दुस्तान में तीन साल से अधिक समय तक नौकरी कर चुके हैं और उनके उस पुराने अनुबंध को कुछ तकनीकी कारणों की वजह से अब और आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।

ज्योतिरादित्य सिंधिया की इस पैरवी को शोभना भरतीया द्वारा ठुकरा दिए जाने पर सिंधिया परिवार में बहुत ज्यादा प्रतिक्रिया हुई। इससे ज्योतिरादित्य और उनके परिवार के लोग बहुत नाराज हुए। मैं जब उनके घर गया तो ज्योतिरादित्य के सहायकों ने बताया किशोभना भरतीया जी ने महाराज जी के आदेश को ठुकराकर महाराज जी का बहुत अनादर किया है। यह बहुत बड़ी चिंता की बात है। आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था। महराजजी (ज्योतिरादित्य सिंधिया) ने और बड़े महाराजजी (माधवराव सिंधिया) ने आज तक जिस किसी की भी सिफारिश भेजी है सब का काम हुआ है। आज तक कभी भी किसी के भी मामले में महाराज जी के आदेश को नहीं ठुकराया गया था। आज अगर बड़े महाराजजी होते और उनका कोई आदेश इस तरह ठुकरा दिया गया होता तो बहुत कुछ हो सकता था।हिन्दुस्तान टाइम्स के मालिकों पर बड़े महाराजजी ने बहुत बड़े-बड़े अहसान किए हैं।


– गणेश प्रसाद झा

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पत्रकारिता की कंटीली डगर- 44


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की चौवालीसवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 44


103. बैंकों द्वारा कार लोन के जाल में फंसाने की कहानी

हिन्दुस्तान में नौकरी शुरू करने के बाद हिन्दुस्तान टाइम्स कंपनी ने सभी कर्मचारियों का सैलरी एकाउंट एक निजी बैंक एचडीएफसी में खुलवा दिया था। इस बैंक में खाता खुलने के बाद एचडीएफसी और तमाम दूसरे निजी मल्टीनेशनल बैंकों के एजेंट हिन्दुस्तान टाइम्स के दफ्तर में अपना कार लोन, हाउसिंग लोन और पर्सनल लोन बेचने के लिए दौड़ लगाने लगे थे। इन बैंकों में एचडीएफसी, स्टैंडर्ड चार्टर्ड, एएनजेड ग्रिंडलेज बैंक और एचएसबीसी शामिल थे। इन बैंकों ने एचडीएफसी बैंक से हिन्दुस्तान टाइम्स के सभी कर्मचारियों का डाटा यानी नाम-पता हासिल कर लिया और फिर अपना लोन बेचने के लिए उन कर्मचारियों का घर और दफ्तर में पीछा करने लगे। इन बैंकों के एजेंटों ने फर्जी लाभ पहुंचाने का प्रलोभन देकर कई कर्मचारियों को अपनी जाल में फंसा लिया। हर किसी को कुछ न कुछ बेच दिया। मैं भी इनके कार लोन के जाल में फंस गया। मेरे घर पर तीन बैंकों के एजेंट साथ मिलकर आने लगे। इनमें स्टैंडर्ड चार्टर्ड, एचएसबीसी और एबीएन एमरो के एजेंटों ने मुझे समझा-बुझाकर और झूठा भरोसा देकर मारुति की ओमनी कार बेच दी। एजेंटों ने मुझे कहा कि इस कार का कॉमर्शियल इस्तेमाल भी होता है और वे मेरी गाड़ियां अपने पहचानवाले के टैक्सी स्टैंड या फिर किसी दफ्तर में लगवा दैंगे और मुझे पेट्रोल, ड्राइवर का खर्च और गाड़ी की ईएमआई काटकर हर गाड़ी पर हर महीने करीब आठ हजार रुपए बच जाएंगे। एजेंटों ने कहा कि उनलोगों ने मेरे जैसे अपने कई कस्टमर्स की गाड़ियां इसी तरह लगवा रखी है और यह बहुत फायदे का धंधा है। पर मैंने कहा कि मुझे गाड़ियों के धंधे के बारे में कुछ भी नहीं मालूम और वैसे भी मुझे गाड़ी की कोई जरूरत नहीं है। फिर मुझे हिन्दुस्तान की इस ठेके की नौकरी में आठ हजार की तनख्वाह मिलती है जिससे हर महीने गाड़ियों के कर्ज की ईएमआई देना बिल्कुल संभव नहीं है। पर एजेंटों ने कहा कि इसमें मेरी तनख्वाह के पैसे तो खर्च होने ही नहीं हैं। सारा इंतजाम तो गाड़ियों से होनेवाली कमाई से ही हो जाना है। और फिर गाड़ियो से मुझे नियमित आमदनी भी होती रहेगी। इस तरह उन्होंने मुझे समझा-बुझाकर फंसा लिया। एजेंटों ने कहा कि मुझे सिर्फ कार डीलर से गाड़ियों की डिलीवरी भर ले लेनी है। उसके बाद का सारा काम और सारा सरदर्द उनका। मैंने उनकी इन बातों में छिपे रहस्य को उस समय समझ नहीं पाया और उनपर यकीन करके कारलोन के सारे पेपर्स साइन कर दिए।

मैंने कार डीलर से गाड़ियों की डिलीवरी भी ले ली। तीनों गाड़ियां घर आ गईं। मैंने अगले दिन उन सभी एजेंटों को फोन करके बता दिया कि मैं गाड़ियां ले आया इसलिए अब आप इन्हें लगवाने का काम करें। बैंक एजेंटों ने कहा कि वे हफ्ते भर में गाड़ियां लगवा देंगे। एक हफ्ता निकल गया पर वे नहीं आए और न उनका कोई फोन आया। मैंने उन्हें फिर फोन किया कि जल्दी कीजिए। उन्होंने कहा कि दो-चार दिन में काम हो जाएगा। पर वे नहीं आए। मैंने फिर फोन किया तो फोन नहीं उठने लगा। एक एजेंट ने कहा कि वह बिजी था इसलिए समय नहीं मिला सो एक हफ्ता और रुक जाइए। कई दिनों बाद एक दूसरे एजेंट ने बताया कि वह किसी काम से दिल्ली से बाहर है इसलिए हफ्ते-दो हफ्ते का समय और लगेगा। समय निकलता गया। बाद में उन एजेंटों ने मेरा फोन उठाना ही बंद कर दिया। इसी तरह बैंक के एजेंटों को बार-बार फोन करने और उनका इंतजार करने में दो महीने का समय गुजर गया पर एजेंट झांकने तक नहीं आए। मेरे बैंक खाते में कुछ पैसे बचे थे और उसी से इन गाड़ियों की किश्तें कट रही थीं। मैंने बैंक जाकर उनके मैनेजरों से संपर्क किया तो वहां बताया गया कि बैंक गाड़ियां लगवाने का काम नहीं करती। आप अगर अपनी गाड़ियां कहीं लगवाना चाहते हैं तो आपको यह काम खुद ही करना पड़ेगा। एजेंटों ने आपको कैसे कह दिया कि वे आपकी गाड़ियां लगवा देंगे। एजेंट ऐसा कोई काम नहीं कर सकते। उन्हें इसकी इजाजत भी नहीं है। बैंक अधिकारियों की यह बात सुनकर मैं ठगा सा रह गया।

बैंक एजेंटों के कहने पर मैंने इन गाड़ियों के लिए अपने पीएफ से सारे पैसे जो लगभग तीन लाख रुपए थे निकलवा लिया था। पीएफ के उन्हीं पैसों से इन गाड़ियों का डाउन पेमेंट और अन्य खर्च चुकाया था। मुझे उन बैंक एजेंटों ने एक उज्जवल भविष्य का सुनहरा सपना दिखाया था। पर मैं तो कहीं का नहीं रहा था। उन्हीं दिनोंहिन्दुस्तान में मेरे साथी विजेंद्र रावत जी ने मुझे आगाह किया था कि इन एजेंटों पर ज्यादा भरोसा करना ठीक नहीं है सो पहले एक गाड़ी लेकर देख लो कि उससे कितनी आमदनी हो पाती है। फिर दो और ले लेना। पर बैंक के एजेंट मेरे इस अनुरोध को मानने को बिल्कुल तैयार नहीं हुए थे। एजेंटों ने मुझे कहा था कि लोन का सारा काम पूरा हो गया है और बैंक ने डीलर को गाड़ियों की पूरी पेमेंट दे दी है और ऐसे में गाड़ियों की डिलीवरी रोकी नहीं जा सकती।

चार-पांच महीनों तक बैंक में जो थोड़े पैसे थे उससे इन गाड़ियों की ईएमआई चुकता होती गई पर उसके बाद मेरे ईएमआई के चेक बाउंस होने लगे। बैंकों ने नोटिस भेज दिया और बैंक से बार-बार फोन आने लगे। रिकवरी वाले बार-बार घर आने लगे। फोन पर धमकियां दी जाने लगीं। रिकवरीवाले फोन करके गालीयां भी देते थे। गाड़ियां वहां घर पर थीं नहीं लिहाजा कुछ महीने बाद बैंकों ने कोर्ट में मुकदमा दायर कर दिया। चेक बाउंस के भी कई-कई केस दर्ज करा दिए गए। बैंकों ने मुझपर गलत आरोप लगाया कि मैंने लोन लेकर पैसे नहीं चुकाए और गाड़ी भी बेच दी। मैंने कोई गाड़ी नहीं बेची थी। मैं तो उन गाड़ियों को कहीं न कहीं लगवाने की फिराक में था जो नहीं हो पा रहा था। इन गाड़ियों में मेरी मेहनत की कमाई के तीन लाख रुपए फंसे थे और उसकी मुझे चिंता थी। कार लोन के ये मामले तीस हजारी और पटियाला हाउस कोर्ट में चल रहे थे। मैं हर तारीख पर जाता था। अदालत को पूरी बात बताई थी। बैंकों को कोर्ट की डांट भी लगी थी। जज महोदय ने बैंक के वकील और अधिकारी से कहा था कि बाकी सबको तो फंसाते ही हो, पत्रकार को भी फंसा लिया। जज महोदय ने मेरी सैलरी स्लिप देखकर बैंक के वकील से कहा था कि इनकी पूरी तनख्वाह भी अगर ले ली जाए तो भी कार का लोन चुकता नहीं हो सकता। इतनी कम तनख्वाह वाले आदमी को आपने (बैंक) कार लोन दे कैसे दिया। मेरी कुल तनख्वाह महज 8225 रुपए थी और एक-एक गाड़ी की ईएमआई लगभग 7000 (सात हजार) रुपए थी। यानी हर महीने करीब 21000 (इक्कीस हजार) रुपए की ईएमआई थी। इसे फंसाना ही तो कहेंगे। अदालत को मैंने इस तरह फंसाने की पूरी कहानी बोलकर और लिखकर बता दी थी। अदालत ने मुझसे पूछा कि क्या मैं हर महीने 2000 रुपए देने की हालत में हूं। मैंने मना कर दिया क्योंकि इतने पैसे बचते ही नहीं थे तो देता कहां से। मैंने कोर्ट से कहा कि मुझे गाड़ी नहीं चाहिए। गाड़ी वापस ले लीजिए और गाड़ी में मेरा जो पैसा लगा है वह मुझे वापस दिलवा दीजिए। एक बैंक (एबीएन एमरो) ने कोर्ट में माननीय जज महोदय से कहा कि इनके (गणेश प्रसाद झ) घर का सारा सामान बेचकर पैसा बैंक को लोन बकाए में दिलवा दीजिए। इस पर जज साहब ने बैंक के वकील को खूब झाड़ लगाई थी। जज साहब ने बैंक के वकील से कहा था कि कोर्ट से पूछकर लोन दिया था क्या। किराए के एक कमरे में गुजारा करनेवाला आदमी कहां से इतना भारी लोन चुकाएगा।

अदालतों में कार लोन का मेरा केस चल ही रहा था कि इसी बीच स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक ने दिल्ली पुलिस को पैसे देकर अपने कार लोन के केस में मुझे घर से उठवा लिया। मुझे पटियाला हाउस कोर्ट की एक अदालत ने न्यायिक हिरासत में भेज दिया। मैं अकेला रहता था लिहाजा घरवालों को दिल्ली आकर मेरी जमानत लेने में कई दिन लग गए। इस गिरफ्तारी के अगले ही दिनहिन्दुस्तान टाइम्स प्रबंधन ने नौकरी का मेरा अनुबंध रद्द कर दिया और मुझे नौकरी से निकाल दिया। मैंने तीनों गाड़ियां दिल्ली पुलिस को सौंपकर अदालतों को रिपोर्ट की तब जाकर इन लुटेरे और मायावी बैंकों से मेरा पिंड छूटा। बैंकों के दिखाए इस सुनहरे सपने में मेरा सबकुछ लुट गया। इसमें सब कुछ मिलाकर मुझे लगभग 4 लाख का नुकसान हुआ और नौकरी भी चली गई। मुकदमा लड़ने और जमानत कराने में मित्रों और रिश्तेदारों से कर्ज भी लेना पड़ा सो अलग। बैंकों और उनके एजेंटों ने सुनहरे सपने दिखाकर मुझे कंगाल बना दिया। 


104. गाड़ियां एनटीपीसी कहलगांव में लगवाने की कोशिश

बैंकों के एजेंटों ने जब गाड़ियां नहीं लगवाई तो उनकी ईएमआई को लेकर मैं परेशान रहने लगा। मैंने दिल्ली में भी कुछ प्रयास किया पर सफल नहीं हो पाया। फिरजनसत्ता में मेरे साथी आर्येंद्र उपाध्याय ने एक रास्ता सुझाया कि गाड़ियां एनटीपीसी कहलगांव में लगवा दी जाएं तो ठीक रहेगा और वहां से नियमित पैसे भी मिलते रहेंगे। आर्येंद्र के एक मित्र वहां कहलगांव एनटीपीसी में जनसंपर्क अधिकारी थे। दोनों ने पत्रकारिता की पढ़ाई साथ-साथ की थी सो अच्छी पहचान थी। आर्येंद्र ने इसके लिए अपने पीआरओ मित्र से बात कर ली। उनके मित्र ने इसमें पूरी मदद का भरोसा दिया और गाड़ियां कहलगांव लाने को कहा। मैंने तीनों गाड़ियां ट्रांसपोर्टर के जरिए भागलपुर भिजवा दी जहां से उसे कहलगांव एनटीपीसी के दफ्तर ले जाया गया। आर्येंद्र के पीआरओ मित्र ने मेरी गाड़ियां देखी। गाड़ियां एकदम नई थीं सो उनको पसंद भी आई। गाड़ियों के कागजात मांगे गए जो मैंने दिलवा दिया। आगे की विभागीय मंजूरी के लिए दो हफ्ते का समय मांगा गया। वहां से मैंने गाड़ियां मुंगेर के अपने घर मंगवा ली। करीब दो हफ्ते बाद उन गाड़ियों को फिर वहां एनटीपीसी में भेजने को कहा गया जो मैंने भिजवाया। वहां गाड़ियों की एकबार फिर जांच पड़ताल हुई। सबकुछ ठीक ही था पर एनटीपीसी के एक वरीय अधिकारी ने गाड़ियां फिलहाल लेने से मना कर दिया। कहा कि अभी जिस ट्रांसपोर्टर का टेंडर चल रहा है उसके टेंडर की समाप्ति हो जाने पर ही आगे का कुछ विचार करेंगे। लिहाजा मैंने गाड़ियां वापस दिल्ली मंगवा ली।

दिल्ली में ही मयूर बिहार थाने के एक पुलिस अधिकारी ने एक बार मुझे इसी तरह एक चर्चा में बताया कि दिल्ली के आश्रम से आगरा के लिए दिनभर प्राइवेट गाड़ियां चलती रहती हैं जो फुटकर सवारियां लेकर जाती हैं। अगर वहां किसी अच्छे ड्राइवर को चलाने के लिए गाड़ियां दे दी जाएं तो बात बन सकती है। इससे भी गाड़ियों की ईएमआई का इंतजाम हो जा सकता है। उन पुलिस अधिकारी ने मुझे इस बारे में आश्रम जाकर पूरी बात पता करने की सलाह दी। मैं एक दिन आश्रम गया और चौराहे पर घंटों खड़े रहकर नजारा देखता रहा। वहां से होकर आगरे के लिए फुटकर सवारियां लेकर नॉन कामर्शियल प्राइवेट गाड़ियां तो खूब चल रही थीं। छोटी-बड़ी और एसी-नॉनएसी हर तरह की प्राइवेट और नॉन कामर्शियल गाड़ियां। पर कामर्शियल गाड़ियां भी चल रही थीं। ट्रफिक पुलिस का एक अधिकारी वहां खड़ा था और उन प्राइवेट नॉन कामर्शियल गाड़ियों को पकड़-पकड़कर ताबड़तोड़ उनके चालान काट रहा था। कुछ देर तक यह नजारा देखने के बाद मैंने ट्राफिक पुलिस के उस अधिकारी से बात की औऱ अपनी गाड़ियों की पूरी बात और समस्या उनको बताई। मेरा मामला समझने के बाद उस अधिकारी ने मुझे कहा कि मैं भूल से भी अपनी गाड़ियां इस तरह फुटकर सवारियां ले जाने के लिए न चलवाऊं। इससे मैं किसी बड़ी उलझन में पड़ जा सकता हूं। पुलिस अधिकारी ने बताया कि इस तरह दिल्ली से सड़क के रास्ते आगरा जानेवालों में विदेशी पर्यटक भी होते हैं। अगर रास्ते में कोई सड़क दुर्घटना हो जाए और उसमें किसी विदेशी पर्यटक की मौत हो जाए तो फिर मामला दो देशों के बीच का होने की वजह से बहुत बड़ा बन जाता है औऱ अगर आपकी प्राइवेट नंबरवाली नॉन कामर्शियल गाड़ी के साथ ऐसा कुछ हो गया तो फिर आपका बाकी जीवन जेल में ही कटेगा। उस अधिकारी ने बताया कि प्राइवेट नंबरवाली नॉन कामर्शियल गाड़ी में सवारियां ढोना यानी गाड़ी का कॉमर्शियल इस्तेमाल करना गैरकानूनी है और ऐसे मामलों में दुर्घटना होने पर इंस्योरेंस कंपनी कोई क्लेम यानी मुआवजा भी नहीं देती। उन्होंने हाल के दुर्घटना के एक ऐसे ही मामले का उदाहरण भी दिया जिसमें कुछ विदेशी पर्यटकों की मौत हो गई थी और उस प्राइवेट नंबरवाली नॉन कामर्शियल गाड़ी का मालिक और ड्राइवर गिरफ्तार हो गया था और जेल में था। उस पुलिस अधिकारी की बात और सलाह से मुझे गाड़ियों को लेकर निराशा जरूर हुई पर उनकी बात मुझे अच्छी लगी। मैं यह सोचकर लौट आया कि उस पुलिस अधिकारी ने सही सलाह देकर मुझे कम से कम एक नई मुसीबत में फंसने से तो बचा ही लिया। मुझे तब यह भी समझ आ गया कि कहीं भी इन गाड़ियों को सवारियां ढोने के लिए लगाना खतरे से खाली नहीं है और बैंकों के एजेंटों ने अपने और बैंकों के फायदे के लिए मुझे उन गाड़ियों से कमाई कराने का झूठा प्रलोभन और झांसा देकर लोन में चक्कर में फंसा लिया है।

दिल्ली में मेरी गाड़ियां मेरी सोसायटी के बाहर सड़क किनारे पेवमेंट पर खड़ी रहती थी। सोसायटी मेनेजमेंट को भी इसपर एतराज होने लगा था। कुछ महीने बाद आर्येंद्र ने फिर कोशिश की और कहलगांव एनटीपीसी के अपने पीआरओ मित्र से एक बार फिर निवेदन किया। आर्येंद्र के मित्र के कहने पर मैंने फिर ट्रांसपोर्टर से अपनी तीनों गाड़ियां वहां कहलगांव भिजवाई। वहां एनटीपीसी में फिर से सबकुछ जांचा परखा गया। पर सफलता इस बार भी नहीं मिली। पीआरओ की तमाम कोशिशों के वावजूद बड़े अधिकारी ने कह दिया कि गाड़ियां एसी नहीं हैं इसलिए नहीं ली जा सकतीं। मुझे गाड़ियां एनटीपीसी से वापस लानी पड़ी। पर इस बार गाड़ियों को वापस दिल्ली लाने के लिए मेरे पास पैसे बिल्कुल नहीं थे और मैं अब किसी से उधार भी मांग सकने की हालत में नहीं था। सो मैंने अपनी तीनों गाड़ियां अपने गांव से करीब 20 किलोमीटर दूर तारापुर शहर में एक परिचित के घर के पास के खाली मैदान (सरकारी जमीन) पर खड़ी कर दी। बाद में इसी जगह से उन गाड़ियां को कोर्ट के आदेश पर पुलिसवाले दिल्ली लेकर गए। कोर्ट का गाड़ी लाने का आदेश सिर्फ स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के मामले में हुआ था और केवल एक गाड़ी को ले जाने का हुआ था। पर बाकी दोनों बैंकों ने उन्हीं पुलिसवालों को पैसे देकर तीनों गाड़ियां दिल्ली मंगवा ली थी। मैं भी इन गाड़ियों से पिंड छुड़ाना चाहता था सो तीनों गाड़ियां उठवा दी। बाद में बाकी दो मामलों में जजों ने बैंकों को खूब डांट लगाई थी कि बिना अदालती आदेश के उन्होंने गाड़ियां क्यों उठवा ली। 

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....

(यह मेरे ब्लॉग ganeshprasadjha.blogspot.com पर भी उपलब्ध है)


शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

पत्रकारिता की कंटीली डगर- 42


एक पत्रकार की अखबार यात्रा की बयालीसवीं किस्त


पत्रकारिता की कंटीली डगर

भाग- 42


98. ट्रेड यूनियन की गुंडई, मक्कारी और प्रोफेशनलिज्म की कमी

हिन्दुस्तान में अपनी चंद वर्षों की नौकरी में मैं इस अखबार और वहां की स्थितियों को थोड़ा-बहुत जितना समझ पाया उसके मुताबिक वहां न्यूज डेस्क संभालने वाले जानकार पत्रकार बहुत कम थे। वहां ज्यादातर वैसे लोग थे जो पहले प्रूफरीडिंग का काम देखते थे और कंप्यूटरीकरण के बाद प्रबंधन ने नई व्यवस्था में उनको समायोजित करने के लिए उनको उप संपादक बना दिया था और उन्हें कंप्यूटर पर पेज बनाने की जिम्मेदारी सौंप दी गई थी। इसलिए उनमें एजेंसी की अंग्रेजी की खबरों का अनुवाद, हार्ड न्यूज लिखने, खबरों को संपादित करने, कंपाइल करने और उन्हें री-राइट करने आदि की क्षमता नहीं दिखाई देती थी। वहां साहित्यिक लेखन करनेवाले और बच्चों की पत्रिकाओं के लिए लिखनेवाले लोग थे। वहां ऐसे भी कई पत्रकार थे जिनको अखबारनवीसी से कोई खास मतलब नहीं था और वे मूल रूप से छोटे-मोटे व्यापारीप्रोपर्टी डीलर या दुकानदार सरीखे लोग थे। पर हिन्दुस्तान में उन दिनों बिड़लाजी का राज था इसलिए उनकी भी वहां रोजी-रोटी बहुते मजे से चल रही थी। अखबार और दफ्तर में हर तरफ एक जड़ता दिखाई देती थी। कामचोरी और मक्कारी तो वहां के कर्मचारियों में कूट-कूट कर भरी थी। पर मैं जिस समय वहां गया था वह अखबार में तकनीकी बदलाव का दौर था और कंपनी को प्रोफेशनल लोगों की जरूरत थी। इसके लिए अखबार की स्थितियों में जरूरी बदलाव करने का काम कुछ-कुछ शुरू हो गया था। अंग्रेजी यानी हिन्दुस्तान टाइम्स में स्थितियां हमेशा से चुस्त-दुरुस्त थी और वहां प्रोफेशनलिज्म दिखाई देता था। पर तकनीकी रूप से आधुनिकीकरण वहां भी हुआ था जिससे वहां भी स्थितियां तेजी से बदल रही थीं।हिन्दुस्तान टाइम्स में काम करनेवाले अच्छे और जानकार लोग थे जिस कारण वहां प्रोफेशनलिज्म था। ऐसा इसलिए क्योंकि हिन्दुस्तान टाइम्स उनका फ्लैगशिप अखबार था और वही कंपनी का ब्रेड़-बटर भी था। हिन्दुस्तान तो कुछ समय या कहें कि कुछ साल पहले तक तो एक विज्ञापन का अखबार ही हुआ करता था और यही माना भी जाता था। लोग उसे खबर पढ़ने के लिए नहीं, सिर्फ टेंडर वाले विज्ञापन देखने के लिए ही खरीदा करते थे। हिन्दुस्तान में विज्ञापन ठसाठस भरा होता था और अखबार को उससे मोटी आमदनी होती थी। शायद इसी वजह से कंपनी ने हिन्दुस्तान के कर्मचारियों की गुंडई और मक्कारी को भी हृदय से लगाकर रखा था। लोग कहते थे कि बिड़लाजी हमेशा यही मानते थे कि उनके उन मक्कार कर्मचारियों की ही किस्मत से उनका व्यापार इस कदर तेजी से फलता-फूलता रहा है।

हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप के दफ्तर में कंप्यूटर सिस्टम और दूसरे सारे तामझाम बिल्कुल नए लग गए थे। पूरे दफ्तर के पुरानेपन को हटाकर उसे एक नया लुक दे दिया गया था। साफ-सफाई भी बहुत अधिक थी।हिन्दुस्तान की बात करें तो वहां सब कुछ बहुत सुंदर था पर वहां पत्रकारिता वाला वैसा माहौल नहीं था जैसा कि एक बड़े अखबार में होना चाहिए। खबरों के प्रति सीरियसनेस का वहां घोर अभाव था। सबकुछ टेक-इट-ईजी वाले अंदाज में होता था। हां, दफ्तर में लोगों का व्यवहार बड़ा मधुर था। कर्मचारियों में एक दूसरे के प्रति काफी सम्मान का भाव रहता था। वहां डेस्क के लोगों की खबरों के प्रति गंभीरता को इसी से काफी बेहतर ढंग से आंका जा सकता है कि लोग वहां कंप्यूटर पर ताश के पत्ते खेलने में मशगूल रहते थे और तरह-तरह के पॉर्न वीडियोज के क्लिप देखा करते थे। अखबार में अनुशासन तो बिल्कुल ही नहीं था। और प्रोफेशनलिज्म न होने की वजह से कर्मचारियों में प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता का भाव भी बिल्कुल नहीं था।

हिन्दुस्तान में मैंने बड़े ही गजब-गजब की चीजें होती देखी और वहां गजब-गजब के लोग भी देखे। वहां कुछ गलत एलीमेंट भी घुसे हुए थे जो लंबे समय से वहां रहने की वजह से काफी प्रभावशाली बन गए थे। वहां मैंने कई ऐसे लोग देखे जो वहां के परमानेंट कर्मचारी थे पर वे काम पर कभी दफ्तर नहीं आते थे। उनकी हाजिरी फिर भी लग जाती थी। वहीं जानकारी मिली थी कि वहां रमाकांत गोस्वामी और मयूरी भारद्वाज नाम के दो रिपोर्टर कार्यरत बताए जाते थे जो हिन्दुस्तान के ही कर्मचारी थे बताते हैं जिन्हें लोगों ने कभी दफ्तर में आते और वहां काम करते नहीं देखा था। बिना कभी दफ्तर आए और बिना कभी कोई काम किए ही उनकी हाजिरी लग जाती थी। संपादकीय विभाग में ही एक और सज्जन थे जो दफ्तर से ही अपना प्रोपर्टी डीलर का काम किया करते थे। वे कभी दफ्तर में आकर काम नहीं करते ते। वे दफ्तर के ग्राउंडफ्लोर पर स्थित रिशेप्शन में ही आकर बैठ जाते थे और वहीं से बैठकर वे अपना प्रपर्टी डीलर वाला काम किया करते थे। वे अपने मिलने-जुलने वालों को भी दफ्तर के रिसेप्शन पर ही बुला लिया करते थे। वे सिर्फ तनख्वाह लेने के दिन ही दफ्तर में दिखाई पड़ते थे। हिन्दुस्तान में कर्मचारी एटेंडेंस रजिस्टर पर हस्ताक्षर करके अपनी हाजिरी दर्ज नहीं करते थे। इसके लिए संपादक के दफ्तर में एक कर्मचारी नियुक्त था जो कंपनी का क्लर्क था और संपादक का पीए भी वही हुआ करता था। वही चेहरा देख-देखकर सबकी हाजिरी दर्ज करता था। यूनियन से जुड़े और उनकी कृपा वाले कुछ लोग कभी दफ्तर नहीं आते थे वे बिना दफ्तर आए उस क्लर्क से अपनी हाजिरी बनवा लेते थे। उन लोगों ने दफ्तर की पूरी व्यवस्था को अपनी गिरफ्त में ले रखा था। इसे हाईजैक करना भी कह सकते हैं। वे आंदोलनकारी लोग अपनी इच्छा से सबकुछ नियंत्रित करते थे। अखबार काफी सुविधासंपन्न था पर अखबार की दशा अच्छी नहीं थी। वहां अखबार निकालना बहुत कठिन काम होता था। यह सब वहां की ट्रेड यूनियन के लोगों की गुंडई की वजह से होता था। वहां की यूनियन बड़ी तगड़ी थी और यूनियन के लोगों ने कंपनी और उसके मालिक को अपनी मुट्ठी में दबोच रखा था। कंपनी के मैनेजर और मेनेजमेंट के इंचार्ज नरेश मोहन भी पूरी तरह से यूनियन की मुट्ठी में थे और अपनी इच्छा से कुछ भी नहीं कर पा रहे थे।

कंपनी के जो पुराने कर्मचारी थे वे लोग वहां हमेशा मनमानी करते थे। जब मर्जी आना और जब मन हो चले जाना। वे लोग काम करना नहीं चाहते थे। उनसे कोई काम करा भी नहीं सकता था। हर डिपार्टमेंट में यही हाल था। यहां तक कि दफ्तर का परमानेंट चपरासी भी काम नहीं करता था और चुपचाप बैठा रहता था। चपरासी के काम के लिए दर्जनों लड़के तीन-तीन महीने के ठेके पर रखे जाते थे जो हर विभाग में तैनात किए जाते थे। वही लोग काम करते थे। ट्रेड यूनियन के लोग कंपनी पर दबाव डालकर पुराने लोगों को प्रोमोशन भी दिलवाते थे। यूनियन के लोग कभी भी अखबार में नए लोगों की भर्तियां नहीं होने देते थे। उन्हें लगता था कि नए लोग आएंगे तो काम में सुधार हो जाएगा और तब मक्कारी करने का उनका राज नहीं चल पाएगा। इसे हम संस्थान की नासमझी या नाकामी भी कहें तो गलत नहीं होगा।

मेरे समय में कई प्रोफेशनल पत्रकार तीन-तीन साल के कांट्रेक्ट पर भर्ती किए गए थे पर ट्रेड यूनियन के लोगों ने उन नए कर्मचारियों को करीब छह महीने तक दफ्तर में घुसने तक नहीं दिया था। इनमें मेरे साथी पत्रकार सुबोध मिश्र, अरविंद शरण और दीपक मंडल भी थे। न्यूज का पूरा वर्कलोड हम लोगों पर ही होता था जिसमें अंग्रेजी खबरों का हिन्दी अनुवाद भी शामिल होता था। हम कांट्रेक्ट वाले पत्रकार अखबार के बंधुआ मजदूर थे।

हिन्दुस्तान में कुछ अच्छे पत्रकार जरूर थे पर उस माहौल में रहकर वे भी कुंठित हो चुके थे और उनके ही रंग में रंग गए थे। ऐसे अच्छे और टैलेंटेड पत्रकार बाद में अपनी क्षमता के बूते बीबीसी जैसी समाचार संस्था और डोयचेवेले रेडियो से जुड़ गए और नौकरी करने विदेश भी गए।

हिन्दुस्तान में संपादक भी बहुत जल्दी-जल्दी बदल जाते थे। संपादक भी ज्यादातर वैसे ही आए जिनका रुझान हार्ड न्यूज की तरफ बिल्कुल नहीं था। वे साहित्यिक और लेखकीय प्रकृति वाले थे। मुझे अपने समय के किसी संपादक में खबरों के प्रति गंभीरता और रिएक्शन नहीं दिखाई दिया। ज्यादातर संपादक भी वहां आकर सुविधाभोगी ही बन गए थे।

हिन्दुस्तान में अक्सर राजनैतिक दलों के नेताओं की सिफारिश पर मशीनमैन, प्रूफरीडर, चपरासी और दूसरे चतुर्थवर्गीय कर्मचारी रखे जाते थे। वे आते ही खुद को कंपनी मालिक का दामाद ही समझने लगते थे। कांग्रेस की वहां ज्यादा चलती थी लिहाजा कांग्रेसी नेताओं के सिफारिशी ही वहां ज्यादा थे। कांग्रेसी नेता हरकिशनलाल भगत के वहां कई लोग थे जो वहां बरसों से काम कर रहे थे और काफी ताकतवर बन गए थे। इन सिफारिशी लोगों में मक्कारी और काम न करने की प्रवृति घर कर गई थी।

कंपनी ने अपने फ्लैगशिप अखबार हिन्दुस्तान टाइम्सको ट्रेड यूनियन की गिरफ्त में जाने से किसी तरह बचाकर रखा था। इसके लिए उन्होंने यूनियनवालों से अंदरखाने कुछ डील कर ऱखी थी बताते हैं जिस कारण यूनियनवाले अंग्रेजी में ज्यादा दखल नहीं दिया करते थे। इसी वजह से हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रोफेशनलिज्म बरकरार था। पर बदलाव के उस दौर में हिन्दुस्तान टाइम्स में भी कांट्रक्ट पर काफी लोग लिए गए थे, खासकर पत्रकार। कंपनी ने दफ्तर की व्यवस्था को सुधारने और चीजों को नियंत्रण में लाने के लिए बदलाव के उस संधिकाल में ही कई नए पद भी सृजित किए थे। कार्यकारी निदेशक (ईडी), प्रेसीडेंट, वायस प्रेसीडेंट वगैरह पद तभी बनाए गए थे।

99. संपादकों ने अखबार से करोड़ों बनाए

हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप में खासकर उसके अंग्रेजी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स में कई-कई अंग्रेजीदॉ संपादक आए और उन्होंने अखबार के कंटेंट पर ध्यान देने की बजाए उसकी साज-सज्जा पर ज्यादा ध्यान दिया। इन संपादकों ने मालिक को अपने-अपने आईडियॉज बेचकर करोड़ों रुपए अलग से कमाए। इस अखबार समूह के अंग्रजी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स का फॉन्ट पहले भी खराब नहीं था, पर उन संपादकों ने मालिक को अखबार का फॉन्ट न्यूयार्क टाइम्स औरलंदन टाइम्स जैसा करने का आईडिया दिया और इसके लिए विदेशों से एक्सपर्ट बुलवाए गए। करोड़ों खर्च करवाकर फॉन्ट बदले गए। इस तरह कंटेंट की बजाए फॉन्ट बदल देने से बिड़लाजी का अखबार न्यूयार्क टाइम्स और लंदन टाइम्स सरीखा बना या नहीं यह तो पता नहीं पर कहते हैं उन चालाक संपादकों ने अखबार मालिक को मूर्ख बनाकर इस दलाली में करोड़ों रुपए जरूर बना लिए। इसीलिए तो कहते हैं कि धनकुबेरों को मूर्ख बनाना ज्यादा मुश्किल नहीं है, बस आपके पास इसके लिए धुरफंदी वाला हुनर होना चाहिए। हिन्दी के संपादकों में इस हुनर की हमेशा से कमी थी। उधर अखबार मालिक के पास अपने हिन्दी अखबार के लिए वैसा कोई भारी भरकम बजट भी कभी उपलब्ध नहीं था। हिन्दुस्तान तो हमेशा उपेक्षा का शिकार ही बनता रहा।

– गणेश प्रसाद झा

आगे अगली कड़ी में....